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________________ २७२ युगवीर-निवन्धावली तात्कालिक निजी कल्पना थी—यह स्पष्ट है। और इसलिये इस सव कथनसे यह बात और भी साफ हो जाती है कि श्रावक लोग युगकी आदिसे ही चैत्य-चैत्यालयोके निर्माण तथा पूजावन्दनादि सवधी अपनी उपासना-विधिका स्वय ही विधान करते आए हैं। यह बात दूसरी है कि उनमेसे कुछ लोग भरतजीकी तरहसे नई-नई विधियोके ईजाद करनेवाले हो और कुछ पुरजनोकी तरहसे उनका प्राय अनुकरण करनेवाले ही हो। परन्तु इतना स्पष्ट है कि श्रावकलोग स्वय अपनी उपासना-विधिकी नई कल्पना करनेमे समर्थ जरूर थे और उसमे उनकी रुचि भी बहुत कुछ चरितार्थ होती थी। यही वजह है जो भरतजी-द्वारा कल्पित हुई अथवा उनकी ईजाद की हुई वन्दनमालाए आज प्रचलित नही है, उनका रिवाज छूट गया अथवा विलकुल ही रूपान्तरित हो गया है, क्योकि आजकल लोकरुचि बदली हई है—लोग उस प्रकारसे भगवानकी मूर्तियोको घटोपर अकित करके उन्हे जगह-जगह दर्वाजोपर लटकाना उचित नही समझते । इसके सिवाय, उक्त कथनसे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि उपासना-विधिकी कोई कल्पना महज इस वजहसे ही अप्रमाण नही हो जाती कि उसे किसी श्रावकने कल्पित किया है, क्योकि भरतजी-द्वारा कल्पित हुई उक्त उपासना-विधिको कही भी अप्रमाण नही बतलाया गया। प्रत्युत इसके, यह घोषित किया गया है कि उसे सब लोगोने मान्य किया था, और साथ ही, उस विधिकी सृष्टि करनेवाले भरतजीको पुण्यधी, धर्मशील तथा धर्मप्रिय जैसे विशेषणोके साथ उल्लेखित भी किया है, जो सब ही उक्तक्रियाकी धार्मिकता एव प्रामाणिकताको सूचित करते हैं। परन्तु शास्त्रीजीकी समझ विलक्षण है, उन्हे इतने पर भी यह
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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