SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपासना-विषयक समाधान २६९ इतनी भी समझ नही पड़ी कि वह पूर्वपक्षका पद्य कैसे हो सकता है, जव कि इसमे जिनेन्द्रके किमी उपदेशका उल्लेख करके उसपर कोई आपत्ति या आशका नही की गई, वल्कि 'न देशिता' आदि शब्दोके-द्वारा यह स्पष्ट घोपित किया गया है कि जिनेन्द्रने वैसा कोई उपदेश ही नहीं दिया, जिससे उक्त शवा खडी नही रह सकती। क्या शास्त्रीजीने इस पद्यके प्रस्तावना-वाक्यको भी नही पढा ? अथवा जल्दी या भ्रान्तदशामे . 'शका निराकुर्वन्नाह' को आप 'शका कुर्वन्नाह' पढ गये हैं और उसीके अधारपर यह लिख मारा कि वह 'पूर्वपक्षका श्लोक हे' परन्तु कुछ भी हो, इसमे सन्देह नही कि शास्त्रीजीका इस पद्यको पूर्वपक्षका श्लोक बतलाना उनकी अनभिज्ञताको सूचित करता है और उकेकी चोट विद्वानोपर यह जाहिर करता है कि आप समझ अथवा विचारसे प्राय कोई सम्वन्ध-विशेप नही रखते । खेद है, शास्त्रीजी अपनी ऐसी विलक्षण समझ तथा अद्भुत विचार-परिणतिके भरोसेपर ही अपने लेखके अन्तमे विद्वानोको यह परामर्श देने वैठे हैं कि "एक वाक्यको लेकर अनर्थ सिद्ध करना दु साहस है। विद्वानोको पूर्वापर कथन विचार कर लिखना चाहिये। ठीक है, शास्त्रीजी ! दूसरोको उपदेश देते रहना परन्तु आप खुद अमल न करना ।। इसमे शक नही कि किसी पूर्वपक्षके पद्यसे उत्तरपक्षका काम लेना दु साहस है, परन्तु उत्तरपक्षके पद्यको पूर्वपक्षका पद्य बतला देना तो दु साहस नही ? वह तो जरूर सत्साहस है ।। हम शास्त्रीजीसे इतना जरूर कहेगे कि उन्हे यो ही अनाप-सनाप नही लिखना चाहिये। आशा है शास्त्रीजी भविष्यमे इसपर अवश्य ध्यान रक्खेंगे ।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy