SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ युगवीर - निबन्धावली यहॉपर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हू कि ३७वे पद्यमे आचार्य महोदयने जो यह प्रतिपादन किया है कि जिनेन्द्रने मोक्षसुखके लिये चैन्य- चैत्यालयो के निर्माण तथा दान-पूजनादिक सम्बन्धी उन क्रियाओ का उपदेश नही दिया किन्तु श्रावकोने स्वय ही उनका अनुष्ठान किया है उसे वस्तुतत्त्व अथवा भूतार्थकका उल्लेख समझना चाहिये । और साथ ही, यह भी जान लेना चाहिये कि आचार्य महोदयका वह कथन मुख्य - विधिकी दृष्टिसे एक निश्चित अथवा नियमित कथन है और इसीसे 'हि'' शब्दका उपयोग भी उसके साथ किया गया जान पडता है । टीकाकारने भी इस कथनको पुष्ट तथा स्पष्ट करते हुये लिखा है कि 'इस क्षेत्र में दान- क्रियाका आद्य ( पहला ) स्वयं अनुष्ठाता श्रेयास राजा और चैत्य चैत्यालयोकी निर्माण क्रियाका पहला स्वय अनुष्ठाता भरत चक्रवर्ती हुआ है' । यथा २७० ― "तत्रेह क्षेत्रे दानक्रियाया आद्यः स्वयमनुष्ठाता श्रेयान, चैत्य - चैत्यालयादिक्रियायास्तु भरतचक्रवर्तीति ।" और यह बात भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत 'आदिपुराण' से भी सिद्ध है । उसमे भरत चक्रवर्तीकी बाबत यह साफ लिखा है कि उन्होने अपनी राजधानी अयोध्यामे जिनविम्बोसे अलकृत चौबीसचौबीस घटे तैयार कराकर उनको नगरके बाहिरी दर्वाजो तथा 'राजमहलोके तोरण-द्वारो और अन्य महा-द्वारोपर वन्दनार्थ लटकाया था, और वे जिस समय इन द्वारोसे होकर बाहर निकलते या इनमे प्रवेश करते थे उस समय उन्हें इन घटोपरसे अर्हन्तोका स्मरण होता था और वे इन घटोमे स्थित अर्हत् १. 'हि विशेपेऽवधारणे --- विश्वलोचनकोष
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy