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________________ २६८ युगवीर-निवन्धावली उस प्रवृत्तिके कारण ) पापवन्ध जरूर होता है। इसपर यह शका खडी हुई कि 'यदि ऐसा है तव तो दान-पूजनादि सम्बन्धी क्रियाओका, जो कि हिंसाकी कुछ कारणीभूत जरूर है, उपदेश देनेसे जिनेन्द्रके भी (कारितानुमतिरूपसे ) पापवन्ध होना चाहियेउनके वह पापवन्ध कैसे नहीं होता ? इस शकाको दूर करने अथवा यह बतलानेके लिए ही कि जिनेन्द्रके-उनके उपदेश-द्वारा कारितानुमतिरूपसे यह प्रस्तावित अथवा शकित पापवन्ध कैसे नही होता, आचार्य महोदयने खासतौरपर पद्य न० ३७ की सृष्टि की है, जैसा कि ऊपर उद्धृत किये हए उसके प्रस्तावनावाक्यमे भी जाहिर है, और इस पद्यके द्वारा, जिसका अनुवाद पहले दिया जा चुका है, उक्त शकाके उत्तरमे वतलाया है कि 'जिनेन्द्र भगवान्ने अपनी केवलज्ञानावस्थामे मोक्ष-सुखके लिये इन चेत्य-चैत्यालयोके निर्माण तथा दान-पूजनादि सम्बन्धी उन क्रियाओ के करनेका कोई उपदेश नही दिया जो अनेक प्रकारसे प्राणियोके-बस-स्थावर जीवोके-मरण तथा पीउनकी कारणीभूत है, बल्कि जिनेन्द्रके भक्त श्रावकोने स्वय ही (विना वैसे उपदेशके अपनी भक्ति तथा रुचि आदिके वश होकर ) उन क्रियाओ का अनुष्ठान किया है।' और इस तरहपर यह नतीजा निकाला है कि श्रावकोके उस अनुष्ठानसे यदि किसी प्राणीको पीडा पहुंचे उसकी हिसा होती हो तो उसके जिम्मेवार अथवा पापवन्धके भागी जिनेन्द्र नही हो सकते। इससे साफ जाहिर है कि यह ( पद्य न० ३७) पूर्वपक्षका कोई पद्य नही है किन्तु एक शकाके उत्तरको लिये हए होनेसे एक प्रकारका उत्तर-पक्षका पद्य है। आर चूंकि इसके साथ ही उक्त शकाके उत्तरकी समाप्ति भी हो जाता है, इससे यह अपने विषयका एक स्वतन्त्र पद्य है। शास्त्रीजीका
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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