SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपासना-विषयक समाधान २३१ प्रत्यक्ष-द्वारा साक्षात् सा करके उसके गुणोका चिन्तवन किया जाता है, और इसीसे उसके साथमे विसर्जनकी कोई क्रिया नही होती । ध्यानाहूत देवता अविसर्जित ही रहते हैं— उनसे कोई नही कहता कि आप अपना यज्ञभाग लेकर अव तशरीफ ले जाईये—वे भक्तके चले जाने अथवा यो कहिये कि अनुपयुक्त हो जानेपर स्वयं ही जहा - के - तहा हृदयमे विलीन या अन्तर्धान हो जाते हैं । अत इस विपयकी भी चिन्ताको छोडकर बडजात्याजीको मेरे कथनके विपक्षमे कोई ऐसा प्रमाण पेश करना चाहिए था जिसमे उनकी पचाग पूजाको शाश्वत पदकी प्राप्ति होती । परन्तु अफसोस है कि उन्होने ऐसा कुछ भी नही किया । उनका यह लिख देना कि “यो तो हमारे देव किसीका कोई सङ्कट मेटते नही न किसीको सुख-दुख ही देते हैं, पर हम सब उनसे विनती आदिमे इस तरहकी प्रार्थना करते रहते हैं" प्रकृत विषयका कोई हेतु नही हो सकता, वल्कि उलटा इस बातको सूचित करता है कि वे अपनी उस उपासनाका अथवा स्तुति - प्रार्थनादि क्रियाओका रहस्य भी नही जानते - वैसे ही एक दूसरेकी देखा-देखी किया करते हैं - और इसलिये उससे यथेष्ट लाभ भी नही उठा सकते । हाँ, उन्होने पूजाके इन अगो तथा द्रव्यादिको गृहस्थके लिये अवलम्वन बतलाते हुए, देव-शास्त्र-गुरु- पूजासे 'द्रव्यस्य शुद्धिमधिगम्य' नामका एक पद्य जरूर उदधृत किया है । परन्तु इससे मेरे उस कथनका कोई विरोध नही होता जो उपासनाके ढगमे क्रमिक परिवर्तन से सम्बन्ध रखता है और जिसके समर्थनमे अमितगतिआचार्यका - वचोविग्रहसकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते । तत्र मानस संकोचो भावपूजा पुरातनैः ॥
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy