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________________ २३० युगवीर-निवन्धावली विपयपर काफी प्रकाश डालते हुए यह सिद्ध करना चाहिए था कि वे किसी समय जैन-उपामनाके अग नही बने, वल्कि उसके शाश्वत अंग है, अथवा कम-से-कम भगवान महावीरके द्वारा उपदिष्ट हुए हैं और उनसे किसी भी जैन-सिद्धान्तका कोई विरोध नहीं आता। परन्तु आपने ऐसा नहीं किया। अस्तु, मैं तो यह समझता हूँ कि जव जैन-सिद्धान्तानुसार हमारे कर्मविमुक्ति देवता आह्वानादिक करनेपर कही आते-जाते नही है और न पूजाका कोई भाव ग्रहण करके प्रसन्न ही होते हैं तव उनके विषयमे बुलाने, विठलाने आदिका यह सव व्यवहार जैनसिद्धान्तोकी प्रकृतिके कुछ अनुकूल मालूम नही होता, बल्कि हिन्दूधर्मके सिद्धान्तानुसार देवता बुलानेमे आते, विठलानेसे वैठते और पूजनके बाद रुखसत करनेपर खुशी-खुशी अपना यज्ञभाग लेकर चले जाते हैं । इसलिये ये वाते हिन्दू-धर्मसे, उसके प्रावल्यकालमे, उधार ली हुई जान पड़ती हैं। और इसीसे इस विपयमे हिन्दुओके अनुकरणकी बात कही गई थी। वडजात्याजीको यह चिन्ता करनेकी जरूरत नही कि विना सिद्धान्तोकी अनुकूलता-प्रतिकूलतापर दृष्टि रक्खे वैसे ही कोई वात कह दी जायगी। हिन्दुओने भी विभिन्नरूपसे अहिंसा आदिकी कितनी ही वाते जैनियोसे, उनके प्रावल्य-कालमे, उधार ली हैं-ससारमे यह लेन-देनका व्यवहार प्राय चला ही करता है । रही भक्तद्वारा देवताको हृदयमे स्थापित करनेकी वात, वह ध्यानका एक जुदा ही विपय तथा मार्ग है और उसका उक्त पचाग पूजा अथवा अक्षतादिकमे देवताके आवाहन, स्थापन आदिकसे कोई सम्बन्धविशेप नही है। वहाँ ध्यानमे देवताके गुणोकी मूर्ति स्थापित की जाती है, उसका चित्र खीचा जाता है, अथवा देवताको मानस
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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