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________________ जयजिनेन्द्र, जुहारु और इच्छाकार २१७ मे इतना अधिक अप्रचलित है कि उसकी इस स्थितिपरसे यह शका पैदा हुए बिना नही रहती कि वह कभी - सर्वसाधारण जैनियोके पारस्परिक व्यवहारका एक सामान्य मत्र रहा है या कि नही । अस्तु, इस विपयमे जव प्राचीन साहित्यको टटोला जाता है तो सोमदेवसुरिके 'यशस्तिलक' ग्रन्थपरसे, जो कि शक सम्वत् ८८१ का बना हुआ है, यह मालूम होता है कि 'इच्छाकार' का विधान क्षुल्लक क्षुल्लकके लिए है—अर्थात् एक क्षुल्लक ( ११ वी प्रतिमाघारक श्रावक ) दूसरे क्षुल्लकको 'इच्छामि' कहे – दूसरे व्रती श्रावकोंके लिए उसका विधान नही, उनके लिए मात्र विनय - क्रिया कही गई है । यथा अर्ह दुरुपे नमोऽस्तु स्याद्विरतौ विनयक्रिया | अन्योऽन्यक्षुल्लके चाहमिच्छाकारवचः सदा ॥ इन्द्रनन्दि - आचार्य-प्रणीत 'नीतिसार' के निम्न वाक्यसे भी इसी आशयको अभिव्यक्ति तथा पुष्टि होती है - -- निर्ग्रन्थानां नमोऽस्तु स्यादार्थिकाणां च वन्दना । श्रावकस्योत्तमस्योश्चैरिच्छाकारोऽभिधीयते ॥ इसमें 'क्षुब्लक' शब्दका प्रयोग न करके उसे 'उत्तम श्रावक' तथा ‘उच्च श्रावक' ऐसे पर्याय - नामोसे उल्लेखित किया गया है । बात एक ही है, क्योकि रत्नकरण्ड श्रावकाचारादि ग्रन्योमे 'उत्कृष्ट' तथा 'उत्तम' श्रावककी सज्ञा ११ वी प्रतिमावाले श्रावकको दी गई है । जिसके आजकल 'क्षुल्लक' और 'ऐलक' ऐसे दो भेद किये जाते हैं और इसलिए क्षुल्लक - ऐलक दोनोंके लिए इच्छाकारका विधान है— दूसरे श्रावकोके लिए नही, यह इस पद से स्पष्ट जाना जाता है । अमितगति-आचार्यके 'उपासकाचार' में, जो कि विक्रमकी
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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