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________________ १९८ गवीर-निवन्धावली कल्पना कीजिये, हमारा एक भाई धार्मिक भावोको लेकर नित्य मन्दिरजीमे जाता है और बडी विनय-भक्तिके साथ भगवान्की पूजा-वन्दना करता है, वह वहाँ जाकर कभी देवताका अविनय अथवा देवमूर्तिको कोई प्रकारका उपद्रव नहीं करता, दूसरोकी पूजा-भक्तिमे वाधक नही होता और न किसीके साथ बलात्कार या व्यभिचार ही करता है और इसलिये इस योग्य नही कि उसका मन्दिरजीमे आना-जाना बन्द किया जाय, परन्तु वही भाई एक दिन बिरादरीकी किसी ऐसी जोनारमे शामिल नही होता जिसमे बेटीवालेने कई हजार रुपये लेकर अपनी सुकुमार कन्याको एक बूढेके साथ व्याहनेकी योजना की हो, उसे ऐसी जोनारमे जीमना अधर्म तथा अन्यायका पोषण मालूम होता है और इसलिये अपने अन्त करणकी आवाज या प्रतिज्ञाके विरुद्ध पचोके कहनेको भी नहीं मानता। इसपर पचलोग, अपना अपमान समझकर नाराज हो जाते हैं और उसका मन्दिर जाना बन्द कर देते हैं। अब बतलाइये कि क्या ऐसा दण्ड-विधान 'समुचित' अथवा 'यथादोष' कहला सकता है ? कदापि नही। उसे अगुलीकी जगह नाक काट डालने जैसा ही कहना चाहिये, क्योकि उस भाईने मन्दिर-सम्बन्धी कोई अपराध नही किया था। मन्दिर-बहिष्कारके दड प्राय ऐसी ही नीतिका अनुसरण करनेवाले देखे जाते हैं और उनमे कुछ भी तथ्य तथा सार मालूम नहीं होता। दूसरे बहिष्कारोकी भी प्राय ऐसी ही हालत है। जो लोग जरा-सी बातपर आगबगूला होकर और अपनी पोजीसन ( Position ) तथा पदस्थकी जिम्मेदारी आदिका कोई खयाल न करके इस प्रकारके कठोर दण्ड दे डालते हैं वे कदापि पचपरमेश्वर कहलाये जानेके योग्य नही हो सकते और न उनकी
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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