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________________ दण्डविधान-विषयक समाधान १९९ दण्डाज्ञा मान्य किये जानेकी क्षमता ही रख सकती है। ऐसे अविचारित दण्ड-विधानोसे समाजको कोई लाभ नही पहुँच सकता, उलटा शक्तिका दुरुपयोग होता है और उससे हानि हो होती है। इसीलिये मैने अपने लेखमें ऐसे पचोकी इस प्रकारकी निरकुश प्रवृत्तिके विरुद्ध आवाज उठानेकी प्रेरणा की थी और लिखा था कि "आजकल जैन पचायतोने 'जातिवहिष्कार' नामके तीक्ष्ण हथियारको जो एक खिलौनेकी तरह अपने हाथमे ले रक्खा है और विना उसका प्रयोग जाने तथा अपने बलादिक और देशकालकी स्थितिको समझे, जहा-तहाँ यद्वा-तद्वा रूपमे, उसका व्यवहार किया जाता है वह धर्म और समाजके लिए बडा हो भयकर तथा हानिकारक हैं ।" - "ऐसी हालतम, अब जरूरत है कि जैनियोकी प्रत्येक जातिमे वीर पुरुष पैदा हो अथवा खडे हो जो वडे ही प्रेमके साथ युक्तिपूर्वक जातिके पचो तथा मुखियाओको उनके कर्त्तव्यका ज्ञान कराएँ और उनकी समाज-हित विरोधिनी निरकुश प्रवृत्तिको नियत्रित करनेके लिये जी-जानसे प्रयत्न करे। ऐसा होनेपर ही समाजका पतन रुक सकेगा और उसमे फिरसे वही स्वास्थ्यप्रद, जीवनदाता और समृद्धिकारक पवन वह सकेगा, जिसका बहना अव बन्द हो रहा है और उसके कारण समाजका साँस घुट रहा है।" मेरे इन शब्दोसे मेरे लेखका शुद्ध आशय विलकुल स्पष्ट हे और उससे यह सहजमे ही जाना जाता है कि वह अनुचित दडविधानोंके विरोधमे लिखा गया है, जो दड समुचित और यथादोप हो उनसे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है, और इसलिये यह । समझ लेना चाहिये कि लेखक दोषीकी हिमायत नहीं करता,
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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