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________________ दण्ड विधान-विषयक समाधान १९७ अथवा पीडितकी जानके ही खतरे मे पडनेका अदेशा हो तो उसका काट डालना कथचित् न्याय्य है । परन्तु एक अनाडी डाक्टरवैद्य या जर्राह - जरासे विकारके कारण किसी स्वस्थ होने योग्य अगको यदि काट डाले तो उसका वह कृत्य न्याय्य अथवा उचित नही कहला सकता और न यही कहा जा सकता हैं कि उसने यथादोष शस्त्रका प्रयोग किया है । साथ ही, यदि यह मालूम पडे कि वह डाक्टर आदि अपने आत्मीयजनो तथा इष्ट मित्रादिके शरीरकी वैसी ही हालत होते हुए उनके शरीरपर वह क्रूर कर्म (अनुचित शस्त्र प्रयोग ) नही करता और न करना उचित समझता है तो उसकी निर्दोषता और भी ज्यादा आपत्ति के योग्य हो जाती है, और यदि कही यह पता चल जाय कि उसने जान-बूझकर, अपने किसी कपायाभावको पूरा करनेके लिए, उसे नुकसान पहुँचानेनीयत से वैसा किया है तब तो उसकी सदोषताका फिर कुछ ठिकाना ही नही रहता और वह महानिन्दा तथा अवज्ञाका पात्र ठहरता है । ठीक ऐसी ही हालत समाजके बहिष्कार - सम्वन्धी दण्ड - विधानोकी है । वे उचित और अनुचित दोनो प्रकारके हो सकते हैं । परन्तु आजकल अधिकाशमे वे अनुचित ही पाये जाते हैं और उनकी हालत प्राय ऐसी है जैसी कि उपायान्तरसे निर्विष होने योग्य सर्पडसी अगुलीको सहसा काट डालना, या ब- मक्खी आदिसे काटी हुई अगुलीको भी सर्पडसी अगुलीकी तरह काट डालना, अथवा मूषक आदि किसी अविषैले जन्तुद्वारा काटी हुई अगुलीको सर्पडसी समझकर काट डालना और या सर्प डसी अगुलीको न काटकर उसकी जगह या उसके अतिरिक्त नाक काट डालना । इस प्रकारके दण्डविधानोको 'समुचित' अथवा 'यथादोष दण्डप्रणयन' नही कह सकते ।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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