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________________ १९६ युगवीर-निवन्वावली उसमे निजका कुछ भी स्वार्थ न रखना चाहिए और न उसके द्वारा अपने अनुचित राग-द्वेषादिको पुष्ट करना चाहिए, उसे पच-परमेश्वरकी गद्दींपर वैठकर न्याय ही करना चाहिये, और वह न्याय अथवा दड दोषकी विशुद्धि तथा क्षेमादिकका साधक होना चाहिए और इसी दृष्टिसे उसका विधान किया जाना चाहिए। समझमे नही आता, इन सब सिद्धान्तोको लिखकर मेरे लेखपर कौन-सी आपत्ति की गई है ? मेरे लेखके किस अशसे इनका विरोध पाया जाता था। मैं इस बातको मानता हूँ कि दण्ड ऐसा ही होना चाहिये और दण्ड-विधाताको इसी रूपसे प्रवर्त्तना चाहिये अथवा ऐसा ही करना चाहिए । परन्तु प्रश्न तो यह है कि समाजमे हो क्या रहा है, अधिकाश पच-जन कर क्या रहे हैं, उनकी प्रवृत्ति किस ओर जा रही है, वे बहुधा व्यक्तिगत रागद्वेष, ईर्षा-घृणा, पक्षपात और अज्ञानादिके वशवर्ती होकर दडविधान करते हैं या कि नही और वह दड-विधान समुचित, सम्यक अथवा यथादोष कहलाये जानेके योग्य है या कि नही ? खेद है कि बडजात्याजीने इन सब लोक-व्यवहारकी बातोपर कोई ध्यान नही दिया, जिनपर ध्यान देनेकी जरूरत थी, और न यही सोचा कि आजकल लोकमे नैतिकदृष्टिसे दड-पात्रो और दड-विधायकोकी पारस्परिक क्या स्थिति है। यदि वे ऐसा करते तो उन्हे उक्त लेखके लिखनेकी नौवत ही न आती और न व्यर्थका परिश्रम उठाना पड़ता। यह ठीक है कि शरीरका कोई अग यदि गल जाय या अन्य प्रकारसे किसी भयकर स्थितिको प्राप्त हो जाय और वह किसी तरह भी बहाल ( स्वस्थ ) न किया जा सकता हो, साथ ही, उसके कायम रखनेसे दूसरे अगोको भी गलने, सडने, विगडने
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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