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________________ युगवीर - निवन्धावली उनके इस वेषके कारण ही वहुतसे राजा उन्हे 'पाणविकवर ' कहनेके लिये समर्थ होसके थे और यह कह सके थे कि 'कन्याने ast अन्याय किया जो एक बाजत्रीको वर बनाया । यथा मात्सर्योपहताश्चान्ये जगुः पाणविकं वरम् । 1 कुर्वंत्या पश्यतात्यन्तमन्यायः कन्यया कृतः ॥ ४८॥ वाजत्रीके रूपमे उपस्थित होनेकी वजहसे ही उन ईर्षालु राजाओको यह कहनेका भी मौका मिला कि यह अकुलीन है, कोई नीच वशी ( कोऽपि नीचान्वयोद्भव ) है, अन्यथा यह अपना कुल प्रकट करे, क्योकि उस समय बाजा बजानेका काम या पेशा करनेवाले शूद्र तथा अकुलीन समझे जाते थे। ऐसी हालतमे वसुदेवके उक्त वेषको रक तथा अकुलीन कहना कुछ भी अनुचित ' नही जान पडता । समालोचकजी स्वय इस बातको स्वीकार करते हैं कि प्रतिस्पर्धी राजाओने वसुदेवको रक तथा अकुलीन कहा था ' । और उनके इस कथनका जैनशास्त्रोमे उल्लेख भी मानते हैं, फिर उनका यह कहना कहाँ तक ठीक हो सकता है कि लेखकने इन शब्दोको अपनी तरफसे जोड दिया, इसे पाठक स्वय समझ सकते हैं । साथ ही, इस बातका भी अनुभव कर सकते हैं कि समालोचकजीने जो यह कल्पना की है कि स्वयंवर - मडपमे राजाओके सिवाय कोई दूसरा प्रवेश नही कर सकता था और इसलिये वाजा बजानेवाले भी वहाँ राजा ही होते थे, वसुदेवजी उन्ही बाजा बजानेवाले राजाओमे जाकर बैठ गये थे' १. “रङ्क और अकुलीन तो केवल प्रतिस्पर्धी राजाओंने स्पर्धावा बतौर अपशब्दोके कहा है" । २ यथाः–“स्वयवरमडपमें सब राजा ही लोग आया करते थे और जो इस योग्य हुआ करते थे उन्हींको स्वयंवरमडपमे प्रवेश किया जाता
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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