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________________ विवाह क्षेत्र प्रकाश १८५ अपनी कर्तृत समझना चाहिये । लेखकने जिसके लिये रक तथा अकुलीन शब्दोका प्रयोग किया है वह वसुदेवजीका तात्कालीन वेप था, न कि स्वय वसुदेवजी, और यह वात ऊपरके उदाहरणाशसे स्पष्ट जाहिर है । वेपकी बातको व्यक्तित्व में घटा ना को भूल है । यह ठीक है कि कभी-कभी कोई राजामहाराजा भी अपने दिल बहलाव के लिये वाजा बजा लेते हैं । परन्तु उनका वह, विनोदकर्म प्राय एकान्तमे होता है - सर्वसाधारण सभा - सोसाइटियो अथवा महोत्सवोके अवसरपर नही — और उससे वे 'पाणविक ' -- वाजत्री — नही कहलाते । वसुदेवजी, अपना वेष बदल कर 'पणव' नामका वादित्र हाथ मे लिये हुए, साफ तौरपर एक पाणविकके रूपमे वहाँ ( स्वयवर मडपमे ) उपस्थित थे— राजाके रूपमे नही - और पाणविकोकी — वाजत्रियोकी — श्रेणीके भी अन्तमे बैठे हुए थे, जैसा कि जिनसेनके निम्न वाक्य से प्रकट है 'वसुदेवोऽपि तत्रैव भ्रात्रलक्षितवेपभृत् । तस्थौ पाणविकातस्थो गृहीतपणवो गृही. (?) 11 — १ इसी पद्यको जिनदास ब्रह्मचारीने निम्न प्रकारसे वदलकर रक्खा है : भ्रात्रलक्षितवेषोऽपि तत्रैव यदुनन्दन । गृहीतपणवस्तस्थौ मध्ये सर्वकलाविदाम् ॥ यहाॅ 'सर्वकलाविदाम्' पद वादित्र विद्याकी सर्व कलाओके जाननेवाले पाणविकोंके लिये प्रयुक्त हुआ है । जिनदासने वसुदेवको उन पाणविकों—बाजत्रियोंके अन्तर्मे न विठलाकर मध्यमें विठलाया है, यही भेद है और वह कुछ उचित मालूम न होता । उस वक्तकी स्थितिको देखते हुए एक अपरिचित और अनिमंत्रित व्यक्तिके रूपमे वसुदेवका पाणविकोके अन्तमें —— पीछे की ओर बैठ जाना या खडे रहना ही उचित जान पडता है ।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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