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________________ युगवीर-निवन्धावली यहाँ 'कुरुवंशन सिरताज' यह स्पष्ट रूपसे 'धनदेवी' का विशेषण जाना जाता है और इसको धनदेवीके अनन्तर प्रयुक्त करके कविने यह साफ सूचित किया है कि धनदेवी कुरुवशमै उत्पन्न हई स्त्रियोमे प्रधान थी। बाकी देवकी कसकी मानी हई बहन थी, इस बातका यहाँ कोई उल्लेख ही नहीं है। इतनेपर भी समालोचकजी इन भाषा-छदोपरसे सदेहका काफूर होना मानते हैं और लिखते हैं - "यह सब कोई जानता है कि वसुदेव यदुवशी थे, और देवकी कुरुवशकी थी। परन्तु वावू साहबने तो उसे सगी भतीजी बना ही दी।" परन्तु महाराज | सब लोग तो देवकीको कुरुवशकी नही जानते, और न हरिवशपुराण तथा उत्तरापुराण जैसे प्राचीन ग्रन्थोसे ही उसका कुरुवशी होना पाया जाता है——यह तो आपके ही दिमाग शरीफसे नई वात उतरी अथवा आपकी ही नई ईजाद मालूम होती है। और आपकी ही कदाग्रह तथा बेहयाईका चश्मा चढी हुई आँखे इस बातको देख सकती हैं कि बाबू साहब ( लेखक ) ने कहाँ अपने लेखमे देवकी वसुदेव की 'सगी' भतीजी लिख दिया है, लेखमे दी हुई वशावलीपरसे तो कोई भी नेत्रवान उसमे सगी भतीजीका दर्शन नहीं कर सकता। सच है 'हठयाही मनुष्य युक्तिको खीच खाचकर वही लेजाता है जहाँ पहलेसे उसकी मति ठहरी हुई होती है, परन्तु जो लोग पक्षपात रहित होते हैं वे अपनी मतिको वहाँ ठहराते हैं जहाँतक युक्ति पहुँचती है।' इसीसे एक आचार्य महाराजने, ऐसे हठ-ग्राहियोकी बुद्धिपर खेद प्रकट करते हुए, लिखा है . “आग्रही बत ! निनीषति युक्तिं यत्र तत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तियंत्र तत्र मतिरेति निवेशन् ॥"
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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