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________________ १३१ विवाह-क्षेत्र-प्रकाश आराधनाकथाकोश छपा है उससे भी यह सदेह साफ तौरसे काफूर हो जाता है।" इससे जाहिर है कि समालोचकजीने देवकीको यदुवशसे पृथक् करने और उसे भोजकवृष्टिकी पौत्री न माननेका अपना अन्तिम आधार आराधनाकथाकोशके कुछ श्लोको और उनके भाषापद्यानुवाद पर रक्खा है । आपके वे श्लोक इस प्रकार है - अथेह मृत्तिकावत्यां पुर्या देवकि[क]भूपतेः। भार्याया धनदेव्यास्तु देवकी चारुका[क]न्यकाम् ॥८५।। प्रतिपन्नस्वभगिनी [ग्नीन्द्रां] तां विवाहप्रयुक्तितः। कंसोऽसौ वा[व]सुदेवाय कुरुवंशो[श्योद्भवां ददौ ॥८६।। ये दोनो जिस आराधना-कथाकोशके श्लोक हैं वह उन्ही नेमिदत्त ब्रह्मचारीका बनाया हुआ है जो नेमिपुराणके भी कर्ता हैं और जिन्होने नेमिपुराणमें देवकीको न तो कुरुवशमे उत्पन्न हुई लिखा और न इस बातका ही विधान किया कि कसने उसे वैसे ही वहन मान लिया था—वह उसके कुटुम्बकी बहन नही थी। परन्तु समालोचकजी उनके इन्ही पद्योपरसे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि देवकी कुरुवशमे उत्पन्न हुई थी और कस उसे वैसे ही बहन करके मानता था। इसीसे आपने इन पद्योका यह अर्थ किया है - "मृतिकापुरीके राजा देवकी [?] की रानी धनदेवीके एक देवकी नामकी सुन्दर कन्या थी। वह कुरुवशमे उत्पन्न हुई थी। और कस उसे वहन करके मानता था। उसने वह कन्या वसुदेवको ब्याह दी।" । परन्तु "वह कुरुवशमे उत्पन्न हुई थी और कस उसे बहन करके मानता था " यह जिन दो विशेषण पदीका अर्थ किया
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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