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________________ १०२ युगवीर - निबन्धावली गया है, अथवा पुस्तककारपर झूठका आरोप न करके, उस विपयमे, सीधा उत्तरपुराणके रचयितापर ही आक्रमण करना चाहिये । यदि वह ऐसा कुछ भी नही करता, वल्कि उस पुस्तककारके उक्त कथनको मिथ्या सिद्ध करनेके लिए पद्मपुराणादि दूसरे ग्रन्थोके अवतरणोको ही उद्धृत करता है, तो विद्वानोकी दृष्टि उसकी वह कृति ( समालोचना) निरी अनधिकार चर्चाके सिवाय और कुछ भी महत्त्व नही रख सकती और न उसके उन अवतरणोका ही कोई मूल्य हो सकता है । ठीक वही हालत हमारे समालोचकजी और उनके उक्त अवतरणो ( उद्धृत वाक्यो ) की समझनी चाहिये । उन्हें या तो लेखकके कथन के विरुद्ध जिनसेनाचार्य के हरिवशपुराणसे कोई वाक्य उद्धृत ' करके बतलाना चाहिए था और या वैसे ( चचा-भतीजी - जैसे ) सम्वन्धविधानके लिये जिनसेनाचार्य पर ही कोई आक्षेप करना चाहिये था, यह दोनो बाते न करके जो आपने, लेखकके कथनको असत्य ठहरानेके लिये, पाण्डवपुराणादि दूसरे ग्रन्थोके वाक्य उद्धृत किये हैं' वे सब असगत, गैरमुताल्लिक और आपकी अनधिकार चर्चाका ही परिणाम जान पडते हैं, सद्विचार - सम्पन्न विद्वानोकी दृष्टिमे उनका कुछ भी मूल्य नही है, वे समझ सकते हैं कि ऐसे अप्रस्तुत गैरमुताल्लिक ( irrelevant ) हजार प्रमाणोसे भी लेखकका वह उल्लेख असत्य नही ठहराया जा सकता । और न ये दूसरे ग्रन्थोके प्रमाण, जिनके लिये समालोचनाके सात पेज रोके गये हैं, कथचित् मतभेद अथवा विशेष कथनको प्रदर्शित करनेके सिवाय, जिनसेनाचार्य के वचनोपर ही कोई आपत्ति करने के लिए समर्थ हो सकते हैं, क्योकि ये सव ग्रन्थ जिनसेनाचार्य-प्रणीत हरिवशपुराणसे वादके बने हुए हैं -- जिनसेनका हरिवशपुराण
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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