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________________ विवाह-क्षेत्र-प्रकाश १०३ शक स० ७०५ मे, उत्तरपुराण शक स० ८२० के लगभग, काष्ठासघी भट्टारक यश कीर्तिका प्राकृत हरिवशपुराण वि० स० १५०० में और शुभचन्द्र भट्टारकका पाण्डवपुराण वि० स० १६०८ मे बनकर समाप्त हुआ, वाकी ब्रह्मनेमिदत्तके नेमिपुराण और आराधनाकथाकोश तथा जिनदास ब्रह्मचारीका हरिवशपुराण ये सब ग्रन्थ विक्रमकी प्राय १६ वी शताब्दीके बने हुए है-ऐसी हालतमे इन ग्रन्थोका जिनसेनके स्पप्ट कथनपर कोई असर नही पड सकता और न प्राचीनताकी दृष्टिसे इन्हे जिनसेनके हरिवशपुराणसे अधिक प्रामाणिक ही माना जा सकता है। इनमे उत्तरपुराणको छोडकर शेप ग्रन्थ तो बहुत कुछ आधुनिक हैं, भट्टारको तथा' भट्टारक-शिष्योके रचे हुए हैं और उन्हे जिनसेनके हरिवशपुराणके मुकाबलेमे कोई महत्त्व नही दिया जा सकता। रहा उत्तस्पुराण, उसके कथनसे यह मालूम नही होता कि देवकी और वसुदेवमे चचा-भतीजीका सम्बन्ध नही था-वल्कि उस सम्बन्धका होना ही अधिकतर पाया जाता है, और इस बातको आगे चलकर स्पष्ट किया जायगा। साथ ही, उत्तरपुराण और जिनसेनके हरिवशपुराणकी सम्मिलित रोशनीसे दूसरे प्रमाणोपर भी यथेष्ट प्रकाश डाला जायगा। यहॉपर, इस वक्त मैं यह बतला देना चाहता हूँ कि समालोचकजीने लेखकको सम्बोधन करके उसपर यह कटाक्ष किया है कि वह प० गजाधरलालजीके भापा किये हुए हरिवंशपुराणके कुछ अगले पृष्ठोको यदि पलट कर देखता तो उसे पता लग जाता कि उसके ३३६ वे पृष्ठकी २४ वी लाइनमे स्पष्ट लिखा है कि १. ब्रह्म नेमिदत्त भट्टारक मल्लिभूषणके और जिनदास ब्रह्मचारी भट्टारक सकलकीर्तिके शिष्य थे।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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