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________________ ५१ समयसार-वैभव ( ६६ ) वास्तविक दृष्टि से पर कर्तत्व मानने में हानि यदि चेतन पर द्रव्य भाव का कर्ता माना जाये नितांत । तब चेतन तद्रूप परिणमन कर जड़ बन जाये, मतिभ्रांत ! यतः जीव पर रूप परिणमन कर न बन चैतन्य विहीन । पर कर्त्त त्व सिद्ध यों होता-निराबुद्धि-भ्रम चिर कालीन । ( १०० ) जीव वस्तुतः अपनी शक्तियो का कर्ता है। घट पटादि में ज्यों न जीव का करता है कर्तत्व प्रवेश । पुद्गल कर्म द्रव्य का भी त्यों जीव नही है कर्ता लेश । तब फिर किस का कर्ता चेतन ? सुनो, योग उपयोग अभिन्न । प्रात्म शक्तियाँ है चेतन में उन हो का कर्त त्व अछिन्न । ( १०१ ) ज्ञानी कर्मो को पौद्गलिक ही जानता है । ज्ञानावरणादिक प्रसिद्ध है कर्मागम में विविध प्रकार । वे परणतियाँ पुद्गल की है, नहि चेतन वे किसी प्रकार । स्व-पर द्रव्य की स्व-पर रूप ही परणति होती है स्वाधीन । निश्चय नय के इस रहस्य का ज्ञाता ही ज्ञानी अमलीन । (99) यतः-पयोंकि । मिराबुद्धि भ्रम-बिलकुल ज्ञान का बोष। (100) अछिन्न जिसका खंग्न न किया जा सके। (101) अमलीन-स्वच्छ, निर्मल।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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