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________________ कर्ता कर्माधिकार ( १०२ ) अज्ञानी भी पर द्रव्य या भाव का कर्त्ता न होकर अपने विकार भावो का ही कर्ता है। संसारोजन भाव शुभाशुभ जितने करता बन सविकार । उनका वह निश्चित कर्ता है, उपादान कारण अनुसार । यतः शुभाशुभ रूप परिणमन करता जीव स्वयं स्वाधीन । उन भावों का वेदनकर्ता तद्भोक्ता भी वही मलीन । ( १०३ ) पर द्रव्य या भाव का कर्तृत्व निपिन हे जो होते हैं जिन द्रव्यों मे गुण एवं पर्याय स्वकीय । वे न अन्य मे जा सकते है और न आसकते परकीय । नहिं संक्रमण गुणों मे संभव; तब कर्मों को जो जड़ जन्यकिस प्रकार परिणमा सकेगा नियम विरुद्ध 'बंधु ! चैतन्य ? ( १०४ ) निष्कर्ष यों जब जीव कर्म मे गुण या पर्यय नहि कर्ता उत्पन्न । उन्हें न कर भी किस प्रकर वह तत्कर्ता होगा निष्पन्न ? जड़ कर्मों का कर्ता जड़ हो, चेतन का चेतन अभिराम । जड़ कर्मों का कर्ता कैसे हो सकता चेतन परिणाम ? (102) वेबन-अनुभव । तभोक्ता-उसका भोगने वाला । (103) स्वकीय-अपने। करकीय-दूसरे के। संक्रमण-बदलना, संक्रांति, बदलाव । जन्य-उत्पन्न होने वाले । (104) अभिराम-सुन्दर। ललाम-सुन्दर ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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