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________________ ६३ समयसार-वैभव ( १२८-१२६ ) ज्ञान मयो भावों से होती ज्ञान मयी भावों की सृष्टि । कारण के अनुसार कार्य हों निश्चित उपादान को दृष्टि । एवं अज्ञानी जन में भी हों जितने जैसे परिणाम । वे विवेक से शुन्य विकृत हों रागद्वेष रंजित, अविराम । ( १३०-१३१ ) स्वर्णमयी कुंडल का होता यथा स्वर्ण से ही निर्माण । लोह पात्र निर्मित होता है लोह धातु से नियम प्रमाण । त्यों अज्ञानी जन के होते भाव सदा सद्ज्ञान विहीन । ज्ञानी के परिपूर्ण भाव हों ज्ञानमयो पावन अमलीन । ( १३२ ) अज्ञान भाव का स्वरूप, प्रकार एव मिथ्यात्व जिसके उदय जीव को होती तत्वों की उपलब्धि सदोष । वह दूषित अज्ञान भाव है, इसके भेद चार निर्दोष । प्रथम भेद मिथ्यात्व विश्रुत है, हो जिससे मिथ्या श्रद्धान । जीवाजीवादिक तत्वों में तथा कथित विभांति महान । (128) विकृत-विकारी, सदोष । रंजित-रंजायमान, युक्त । अबिराम-उसी समय (132) विभुत-प्रसिय । विभ्रांति-विशेष प्रकार का प्रम, मोह।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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