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________________ कर्ता-कर्माधिकार ६२ ( १२५ ) अभिप्राय यह है कि चेतना परिणामी है स्वतः स्वभाव । कोषमयी उपयोग करे तब क्रोधी बनता चेतनराव । मान युक्त हो मानी बनता, मायाकर मायावी म्लान । लोभी मुग्धवृत्ति धारण कर उपादान की दृष्टि प्रमाण । ( १२६ ) जीवो की दो प्रकार परणतियों और उनके परिणाम इससे सिद्ध हुवा निश्चय से निजभावों को कर निष्पन्न । जीव उन्हीं का कर्ता होता जो उससे होते नहि भिन्न । ज्ञानी के परिणाम ज्ञानमय, अज्ञानी के ज्ञान विहीन । जीवों को परणतियां द्वय-विध होती सतत स्वयं स्वाधीन । ( १२७ ) अज्ञानी जन स्व-पर ज्ञान से शून्य रहा करता मतिभ्रांत । पर में सुख दुख मान सदा ही बनता स्वयं विकाराकांत । फलस्वरूप फिर खुल जाते है इसे कर्म बंधन के द्वार । ज्ञानी बन जाने पर होता जीवन बंधमुक्त अविकार । (125) मुगष वृत्ति-सालची भाव, गडता । (126) सतत-निरंतर । (127) विकाराकान्त-विकारयुक्त
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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