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________________ रमयसार-वैभव ६१ ( १२२ ) जीव म्बय रागादि भाव का कर्ता है। स्वयं परिणमित जीव करै नहि यदि क्रोधादि भाव विरूप । कर्म बंध होगा न जीव को फिर इसके परिणाम स्वरुए। संसति के अभाव का आता तव प्रसंग-जो दष्ट विरुद्ध । अथवा साख्यमती बनने का प्राजाता प्रसंग विरुद्ध ( १२३ ) यदि चेतन मे क्रोधादिक का उत्पादक है पुदगल कर्म । स्वयं अपरिणामां को कंस परिवर्तित करता जड़ कम ? किसी द्रव्य के निज स्वभाव को पलट नही सकता है अन्य । जड़ कर्मों के तीव्र उदय मे जड़ नहि बना कभी चैतन्य । ( १२४ ) यदि यह मान्य तुम्हें कि क्रोधमय स्वयं परिणमन करता जीव; क्योंकि परिणमन उपादान की दृष्टि द्रव्य में स्वतः अतीव । तब मिथ्या स्वयमेव सिद्ध हो जाता तब प्यारा सिद्धांत । द्रव्य क्रोध परमाणु जीव को क्रोध मयो करते विभ्रान्त । (122) विड्प-विकारी। अविरुद्ध-निविरोध । (124) अतीव-अत्यंत, बिल्कुल । विभ्रांत-विकारी
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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