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________________ कर्ता-कर्माधिकार ( ११६ ) यदि यह कहो कि पुद्गल की जड़-कर्म वर्गणायें वसुरूपस्वयं परिणमें कर्ममयीबन, है निमित्त चिद्भाव विरूप । तब फिर यह तब कथन कि चेतन उन्हें परिणमाता है म्लानमिथ्या स्वयं सिद्ध हो जाता कथन पुरस्सर तव मतिमान ! । निष्कर्ष यों होता है सिद्ध कि पुद्गल कर्मवर्गणा स्वतः स्वभावकर्मरूप परिणमें; किन्तु हो-तनिमित्त रागादि विभाव । जीवों के परिणामों का वे पा निमित्त बनकर्म विशाल । जीव प्रदेशों में बँधते, बन-ज्ञानावरणादिक तत्काल । ( १२१ ) जीव को सर्वथा अबधक मानने मे दोप पुद्गलवत् यदि जीव स्वयं ही बंधन करता नहीं कभी न । और न क्रोधादिक विकार मय परिणम कर वह बनै मलीन । यह सिद्धांत भ्रमात्मक है, तब इसका होगा यह परिणाम । कहलायेंगे सदा सर्वथा अपरिणामि ही चेतनराम । (119) विरूप-विकृत।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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