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________________ ५९ समयसार-वैमव ( ११६ ) जीव और पुद्गल मे वैभाविक शक्ति का निरूपण जीव तथा पुद्गल में होती वैभाविक इक शक्ति महान । जिसका विकृत परिणमन होता उभय द्रव्य में स्वतः निदान । यदि पुद्गल नहि बँधे स्वयं ही या न परिणमें कर्मस्वरूप । पुद्गल का फिर हो जायेगा अपरिणामि-कूटस्थ स्वरूप । ( ११७ ) निरपेक्ष अनेक मान्यताएं और उनका निराकरण प्रपरिणामिनी कर्मवर्गणा कर्मरूप यदि हों नहि म्लान । तब संसति का ही हो जाये जगती पर सम्प्रति अवसान । क्यों कि कर्म के बंध बिना संसार दशा होती नहि सिद्ध । या फिर सांख्यमती बनने का प्राजायेगा दोष प्रसिद्ध । ( ११८ ) यदि यह माना जाय कि पुद्गल अणुओं को वसुकर्म स्वरूपजीव परिणमाता है स्वशक्ति से, तब यह बनें प्रश्नका रूपस्वयं परिणमन शील द्रव्य को, या नितांत परिणामविहीन। अपरिणामि यदि स्वयं, अन्य फिर कर सकता क्या तत्र नवीन ? (116) अपरिणामि-अपरिवतित-जिसमें परिणममन हो । कूटस्थ-अटल, जिसमें परिवर्तन न हो। (117) संसृति-संसार परिभ्रमण । संप्रति-दस काल में । अवसान-अंत । (118) तत्र-वहां, उसमें
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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