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________________ जीवाजीवाधिकार ( ४ ) उल्लिखित भ्रातियों का निराकरण अध्यवसानादिक समस्त ही जितने कर्मजनित परिणाम । निश्चित पुद्गल द्रव्य परिणमन से होते निष्पन्न, सकाम । इसी दृष्टि से श्री जिनेन्द्र ने इन्हें 'कहा पौद्गलिक विभाव । इन्हें जीव कैसे कह दें, नहि जिनका है चैतन्य स्वभाव ? ( ४५ ) स्वाभाविक ही कर्म अष्टविध पुद्गल मय है जड़ परिणाम । रंच मात्र संप्राप्त नहीं है जिनमें चेतन तत्त्व ललाम । जिनका फल परिपाक समय में दुखमय होता निविड़ नितांत । प्रात्म शत्रुनों को तू कैसे चेतन मान रहा, चिद् भ्रांत ? ( ४६/१ ) व्यवहार नय से रागादि जीव के ही परिणाम हैं रागादिक जीवों में होती जो विभिन्न परणतियां म्लानउन्हें जीव कह श्री जिनेन्द्र ने दरशाया व्यवहार विधान । जो कि न्याय्य है और सर्वथा ही नहि होता जो निर्मूल । जीव स्वयं रागी न बनें तो कर्मबन्ध हो उसे न भूल । (44) सकाम-रागसहित (45) निविड़-धोर। (46/1) न्याम्य-ज्याय संगत ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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