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________________ समयसार-वैभव ( ४१ ) कुछ जन मान रहे वसुकर्मों का विपाक जो सुख दुख रूप । जीवन में अनुभावित होता, उससे भिन्न नहीं चिद्रूप । पुण्य-पाप कृत कर्मोदय में हों, निष्पन्न शुभाशुभभाव । कोई अज्ञ उन्हें ही निश्चित मान रहे चैतन्य स्वभाव । ( ४२ ) कुछ कहते हैं-जीव कर्म मिल मिश्र रूप ही है चैतन्य । पृथक् न अनुभव में आता है, चेतन का अस्तित्व तदन्य । तदतिरिक्त कुछ मान रहे है-जीव कर्म संयोगी भावअर्थ क्रिया करने समर्थ है, अतः जीव वह स्वतः स्वभाव । परात्म वाद (जड़वाद) केवल भ्रम है यों परात्मवादी विनम वश, जिन्हें तत्व की नहि पहिचानमन कल्पित नित किये जा रहे निरा मांत मिथ्या श्रद्धान । इन्हें प्रात्मदर्शी यूं कहते, ये सब ही परमार्थ विहीन । असद् दृष्टि रखने से निश्चित ही हैं प्रांत पथिक प्रतिदीन । (41) विपाक-फल । अनुभाषित-अनुभव में आया हुआ। अश-अज्ञानी ।(42) पृथक्मित्र । अस्तित्व-सत्ता। तबन्य-बुबा । तदतिरिक्त-पूसरे लोग । अर्थक्रिया-कार्यसिटि। (43)आत्म वी-आत्म स्वरूप के प्रत्यक्ष माता-अष्टा। मसत्तष्टि-मिथ्या प्रांति।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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