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________________ समयसारभव ( ४६/२ ) उक्त कथन का समर्थन यतः परिणमन भिन्न न होता कभी द्रव्य से किसी प्रकार । कर्मोदय निमित्त पा करता जीव स्वयं रागादि विकार । अतः न्याय संसिद्ध पक्ष का ही प्रतिपादक है व्यवहार । कर्मभाव से अपराधी बन जीव स्वयं बँधता सविकार । (४६/३ ) __ जीव मे उत्पन्न होकर भी रागादिक स्वभाव नही फिर भी रागादिक स्वभाव नहि, ये विभाव हैं, अतः स्वभाव-- प्रकटाने करना अभीष्ट है रागद्वेष का पूर्ण प्रभाव । बंधन मुक्ति प्राप्त कर तब ही जीवन होगा शुद्ध महान । यों परमार्थ तत्व प्रतिपादन करता यह व्यवहार विधान । ( ४६/४ ) व्यवहार नय मिथ्या नही, उसके मिथ्या मानने मे हानि श्री जिन कथित मुक्ति पथ दर्शक, तीर्थ प्रवर्तक नय व्यवहार । स्वतः प्रयोजनवान् सिद्ध है, निश्चय नय सापेक्ष उदार । यदि व्यवहार सर्वथा मिथ्या और मान लें हेय समान - धर्मतीर्थ तव जगती तल पर हो जायेगा लोप, अयान ! (46/2) मतः-पयोंकि । कर्मोदय-कर्मो का फल सुख-दुखादि । संसिख-भलीभांति सिट। कर्मभाव-रागादि विकार । (46/4) तीर्य प्रवर्तक-धर्म को चलाने वाला। अपान-नाममा श्री जिनका जनवान् सिडामण्या और जायेगा
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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