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________________ जीवाजीवाधिकार ( ३८ ) स्वरूप चिंतन में आत्म लाभ सचमुच हूँ मैं कौन ? अहा ! बस एक शुद्ध चिद्ब्रह्मानूप । दर्शन ज्ञानमयी अविनाशी , अद्वितीय प्रानन्द स्वरूप । रूपरहित हूँ, मैं न किसी का, मम परमाणुमात्र नहि अन्य । यही शुद्ध परमात्म भावना भवसे करतो पार, न अन्य । ( ३६ ) परात्म वादियों की आत्मभ्रांतियाँ कुछ परात्म वादी भ्रम तमरत, जिन्हें तत्त्व की नहि पहिचानअध्यवसानों को कहते है, जीव यही रागादि वितान । ज्ञानावरणादिक पुद्गल को कर्म रूप परणतियाँ म्लान-- जन अनेक मतिनांति विवश बस जीव इन्हें ही लेते मान । ( ४० ) तीव्र, मंद, मध्यम वैभाविक अध्यवसानों को संतानही चेतन है, कोई कहते राग-द्वेष परणतियाँ म्लान । नर नारक नाना प्राकृतियां धारण करता दिखे शरीर । जीव उसे कुछ कहें, जिन्हें जड़ चेतन को नहि परख गंभीर । (28) चिब्रह्म-चैतन्यमयी आत्मा। (39) अध्यवसान-रागादि भाव । वितान-चंदोवा समूहाँ। (40) म्लान-मलिन । आकृतियां-शक्ल सूरत । वैभाविक-विकारमयी । संतान-परंपरा।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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