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________________ समयसार-मव ( ३५ ) निश्चय प्रत्याख्यान का दृष्टांत यथा रजक से भ्रांत पुरुष इक ले आया पर का परिधान । अपना मान पहिन सोया, तब स्वामी ने प्रा को पहिचान । मांगा अपना वस्त्र, तब तजा त्वरित भांत ने, त्यों ममलीन । जीव सुगुरु से ज्ञान प्राप्त कर त्याग करे रागादिमलीन । ज्ञानी की मोहजन्य विकारों में निर्ममता मम स्वभाव नहिंकिंचित् जितने रागद्वेष मोहादि विकार । में उपयोग मयी चेतन हूँ पावन चिदानंदधन, सार । समयसार ज्ञाता कहलाता यही भेद विज्ञान निधान । मोह भाव से निर्ममत्व रह करता चिदानंद रस पान । ( ३७ ) ज्ञानी का आत्म चितन (अपना और पराया) विश्व चराचर भरा हुआ है षड्द्रव्यों से निविड़ नितांत । मै नहि हूँ इन रूप कभी, ममरूप न ये दिखते सम्भ्रांत । शाश्वत जायक भाव हमारा पावन परमानन्द स्वरूप । बेहादिक सब प्रकट भिन्न है, रागादिक भी है पररूप । (35) रजक-मोबी । प्रांत-जिसे भ्रम हो गया हो। परिधान-पहना हुमा कपड़ा, वस्त्र । त्वरित-तुरंत । (37) सम्भ्रांत-भला आदमी। मम-मेरा । शाश्वत-स्थायी ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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