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________________ १२१ समयसार-वैभव ( २८४ ) सारांश कहने का अभिप्राय यही है-रागादिक परिणाम मलीनजीवन में अन्याश्रित होते कर्मोदय निमित्त पा हीन । विकृत रूप नहि परिणमता जब जागृत होकर सम्यक्दृष्टि । निर्विकार परणति के कारण तब न बंध को होती सृष्टि । ( २८५/१ ) किंतु वही करने लगता जब मोहित हो रागादि विभाव । तन्निमित्त कर्मों का भी तब बंधन होता स्वतः स्वभाव । प्रतिक्रमण प्रत्याख्यानाश्रित बंधन करता जीव कभी न । मोह न कर पर द्रव्य-भाव में, शुद्ध बना रहता स्वाधीन । ( २८५२ ) द्रव्य भाव में रहता केवल नैमित्तिक-निमित्त संबंध । पर न निमित्त कभी नैमित्तिक रूप परिणमन करता अंध । रागादिक परणतियां होतीं पा निमित्त कर्मोदय म्लान । यो निमित्त को दृष्टि कर्म ही तत्कर्ता, नहिं जीव निदान ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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