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________________ बंध - श्रधिकार' १२२ ( २८५ / ३ ) फिर भी जब तक रागादिक के जो निमित्त होते पर द्रव्य-उनका प्रतिक्रमण नहि होता या हो प्रत्याख्यान न लभ्य -- तब तक नैमित्तिक विभाव का भी होता नहिं प्रत्याख्यान | प्रति क्रमण भी नहि होता, यों तत्कर्त्ता है चेतन म्लान | C ( २८६ / १ ) अधः कर्मादि दोषों का ज्ञानी अकर्ता है अधः कर्म उद्देशिक ये दो श्राहाराश्रित दोष दोष विशेष | पुद्गल के प्राश्रित वर्णित हैं, ज्ञानी इन्हें न कर्ता लेश । अन्य वस्तु के गुण दोषों का कर्त्ता नहि होता है अन्य । जड़ पुद्गल श्राश्रित दोषों की आत्म कर्त ता है भ्रमजन्य । ( २८६ / २ ) अधः कर्म और उद्देशिक आहार का स्वरूप होन पाप कर्माजित धन से प्रसन पान जो हो निष्पन्न । वही किया जाता श्रागम में श्रधः कर्म संज्ञा सम्पन्न । पर निमित्त निर्मित समस्त ही प्रसन पान उद्देशिक जान । इन पर द्रव्य भाव का कर्ता ज्ञानी कैसे है ? मतिमान ! (२८५ / ३) लभ्य-प्राप्ति करने योग्य, प्राप्त । ( २८६ / 1 ) प्रधः कर्म - अन्याय और पाप से उपार्जित धन से निर्मित भोजन । उद्देशिक- जो भोजन किसी व्यक्ति के उद्देश्य से बनाया गया हो ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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