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________________ ध-अधिकार ( २८० ) ज्ञानी बुद्धिपूर्वक रागादि न कर बंधक नहीं बनता प्रात्म लीन ज्ञानी नहि करता राग द्वेष मोहादि विकार । स्व-पर वस्तु का रूप जान वह स्वस्थ रहे परमार्थ विचार । क्रोध मान माया लोभादिक कलुषित भाव न कर मतिमान । पावन ज्ञायक भाव मात्र को वह लेता है शरण महान । ( २८१-२८२ ) अज्ञानी के बंध क्यों होता है ? वस्तु स्वभाव न जान तत्वतः मिथ्यादृष्टि जीव अज्ञान । भांति विवश रागादि भाव कर कर्म बंध करता है म्लान । इससे सिद्ध हुआ कि कषायों से अनुरंजित जो परिणाम - राग द्वेष मोहादि विश्रुत है, वही बंध कारक अविराम । ( २८३ ) कर्म बंध अन्य किन कारणों से होता है ? द्रव्य भाव द्वारा विभक्त है अप्रतिक्रमण अप्रत्याख्यान । ये भी बंधक सुप्रसिद्ध है उभय विकृत जीवाध्यवसान । उभय विकृतियां हो जाती हैं जीवन में समग्र जब क्षीण-- तब ज्ञानी के भी न कर्म का बंधन होता रंच प्रवीण । (२८१) विश्रत-प्रसिद्ध । (२८३) विभक्त-विभाजित, मेवरूप । प्रतिक्रमण-पूर्वकृत पापों का प्रायश्चित न करना। प्रनत्याल्यान-भविष्य में होने वाले पापो का त्याग न करना।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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