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________________ समयसार-वैभव ( २०२/१ ) उक्त कथन का समर्थन जिसने नहीं प्रात्म को जाना वह अनात्म क्या समझे दीन ? स्व-पर भेद विज्ञान बिना वह कैसा सम्यग्दृष्टि प्रवीण ? जीवाजीव तत्व बिन समझे रागादिक नहि होते शांत । राग भाव बिन छुटे व्यक्ति भी सम्यक्दृष्टि नहीं निर्घात । ( २०२।२ ) शका-समाधान रागी सम्यक्दृष्टि न होता भगवन् ! यह दूषित सिद्धांत । प्रागम में सर्वत्र कहा है, जब सराग सम्यक्त्व नितान्त । सुनो, भव्य ! है कथन यहां पर वीतराग सम्यक्त्व प्रधान । वीतरागता प्राप्ति लक्ष्य है, इतर पक्ष सब गौण, निदान । ( २०२/३ ) सबोधन यह प्राणी संसार दशा में राग द्वेष रत हुवा प्रमत्त । पर पव-निजपद मान बन रहा सतत अपद में ही संतप्त । भव्यबंध ! अब तो सचेत हो, अपना पावन पद पहिचान । तू निश्चित चैतन्य धातु है, राग द्वेष है मैल समान । (२०२/१) निर्धान्त-प्रम रहित । (२०२/२) पद-स्थान, स्वल्प।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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