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________________ निर्जराधिकार ( २००१ ) भेद विज्ञान का माहात्म्य एवं सम्यक् दृष्टि स्वात्म को ज्ञायक भाव स्वभावोजान । सर्व कर्म एवं तत्फल में नहि करता रागादिक म्लान । उसमे विद्यमान रहता है ज्ञान विराग-भाव अमलीन । जिससे निश्चय मुक्ति पथिक बन सतत कर्म मल करता क्षीण । ( २००२ ) राग द्वेष में सना हुआ है अंतरंग जिसका विभांत । फिर भी घोषित करता वंचक- मै हूं सम्यक्दृष्टि, नितांत । मुझे तनिक नहि कर्म बंध-यों मान गर्व से बना स्वछंद । वह पापी सम्यक्त्व शून्य जन काटेगा कैसे भवफंद ? (२०१) अणुमात्र भी राग करनेवाला सम्यक्दृष्टि नही है अणु जितना भी विद्यमान है यदि घट में रागादि विभाव । प्रात्म ज्ञान परिशून्य व्यक्ति वह सिद्ध इसी से स्वतःस्वभाव । उसने नहीं प्रात्म पहिचाना पर में कर सुख भ्रांति नितांत । होकर भी सिद्धांत-सिंधु का पारग-रहा भ्रांत का भ्रांत । (२००२) विभ्रांत-विशेष मोही (२.१) सिद्धांत सिंधु पारग-सम्पूर्ण शास्त्रो का
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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