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________________ मिर्जराधिकार ( २०३ ) अन्य द्रव्य भावाश्रित होते निज मे जो चैतन्य विकारबे सब नहि तव पद हो सकते, तू शुद्धात्म तत्व अविकार । तज सब पर पद, स्वपद ग्रहण कर ज्ञानविराग मयो निर्धान्त । स्वाभाविक जो शाश्वत पावन एक शुद्ध चिद्रप नितांत । ( २०४१ ) ज्ञान के भेद व्यवहार से है, निश्चय से नही मति, श्रुत, अवधि तथा मन-पर्यय केवल गत जो भेद अनेक । नय व्यवहार प्रमाण सही है, निश्चय ज्ञान चेतना एक । होनाधिक होता रहता ज्यों रवि प्रकाश धन पटलाधीन । किंतु वस्तुतः रवि प्रकाश है एक, अखंड, स्वस्थ, स्वाधीन । ( २०४/२ ) ज्ञानाश्रय लेने मे अनेक लाभ तथा ज्ञान भी प्रात्माश्रित है एक अखंड नित्य सर्प । जिसका आश्रय ले योगीजन पाते परमानंद अनूप । यत् प्रसाद हों नष्ट मांतियाँ, कर्म शक्तियाँ होती क्षीण । एवं रागादिक परणातियाँ जीवन में हो जाय विलीन । (२०३) चिरस्थायी-अविनाशी । समुपलब्ध-प्राप्त, हात ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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