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________________ बक्ता मन दिदि राखि के, कहे अन्ध के वैन । सुरता मुनि निश्चै करै, तब ही तिनकू चैन ॥ १३० ॥ इति श्रीनासिकेतपुराणे ज्ञानभक्ति वैराग्य व्याख्याने पंथसंज्ञावरनननाम सप्तदशोध्याय ।। १७ ।। ७ चौपई ११६, कुल (प्रन्थ) १०३५ इति श्रीनासकेत प्रन्थ सम्पूर्ण। लेखकसंवत् अठारह सै सही, वरस तीयासीयो जान । वैसाख सुदी २ श्रखी, दिन वार भोम पुन्न । ता दिन पोधो लिखीत सांडवा मध्ये । क्रमण हरदेवजी कवेट पीहाजल । वाचे मग जा (चा ) ने राम राम । प्रति- पत्र ४४ । पंक्ति १६ । अक्षर २३ । श्राकार १० x ६।। [स्थान- विद्याभवन, रतन-नगर ] ( 8 ) नागकेतोपाख्यान । ( गदा ) आदि अथ श्रीनासकेत कथा लिख्यतेएक ममै श्रीगंगाजी के उपकंठ राजा जनमेजय बैठे हुते। सो मनमें यह उपजी । होइ श्रावै तौ यज्ञ की प्रारंभ कीजै। बारह वर्ष की दीक्षा ले बैठो यह उपजी । हे महर्षिश्वर, वैशंपायन महापुरुष! सर्वशास्त्र के जान दया करिके श्रीभगवानजू की कथा सुनायौ । ज्यों मेरे पाप मोचित होई। मो पर दया करो । तुह्मों श्रीकृष्ण दीपायन के शिष्य हो। वैशम्पायन कहतु है। हे राजा जनमेजय. तुम सावधान होई सुरणो । तोहि दिव्य कथा पुराण की सुनाऊं जा सुने ते तेरे पाप मोचित होहि । भावे एति बात करै । भावे नासकेत सुने बार बार ( बिरावर ) । फल यह नासकेतु अरू उदालिक मुनि की कथा । प्रात उठि एक अध्याय तथा एक श्लोक जू पढे । सनावे ताको जमको डर नाही । अरू किंकरन को डर नाही ।
SR No.010790
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherRajasthan Vishva Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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