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(८) नासकेत पुराण । रचयिता- दयाल । सं०१७३४ फासु०५।
अब नासकेत पुराण लिख्यते आदि
श्रीगुरु श्रीहरि संत सब, रिष जन नाऊ सीस । गुरु गोविंद अरु संत सब, ए विद्या के ईस ॥१॥ विद्वद जनन सूवीनती, कविसु बंदु पाय । सहस कृत माषा करूं, हे प्रभु करो सहाय ॥ २ ॥
चौपई राजा जनमेजय बड भागी, पुनि संग्रह पाप को त्यागी । गंगा तटि जल धारंम कीयो । द्वादस वष नेम व्रत लीयो ।
नासकेन आख्यान इह, सुत उदालिक विख्यात । सदा काल सुमिरण कर, जमके लीक न जात ॥ १२२ ।। वैसंपायन वरनियौ, नासकेत अतिहास । जनमेजय राजा सुनै, गंगा तीर निवास ॥ १२३ ॥ सहसकृत श्लोक ते. सुगम सुमाषा कीन । जगनाथ श्राग्या दई, दयाल सीस धरि लीन ॥ १२४ ।। घटि वधि अखिर मात्रा, अरह सुध न होय । बाल बुद्धिः सम जानि सब, क्षमा करो मुनि सोय ॥ १२५ ।। सोला उपरि सात से, चौपई दोहा जान । पंच कवित्त पुनि श्री रचिन, नासकेत पाख्यान ॥ १२६ ॥ सलोक बत्तीसा गिन कर, संख्या यैक हजार । पनि पैंतीसफ जानियै, नासकेत विचार ॥ १२७॥ संवत् सतरासै भयौ, पनि परि चौतीस । फागुण सुदि तिथि पंचमी, प्राख्यौ विस्वा वीस ॥१२८॥ जनदयाल गुरु ग्यान दें, माख्यौ मुन उपदेश । जो श्रवनन वृत्ति (नीक) करें, ताकौ मिटे संदेश || १२६ ॥