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________________ ( २३१) सतरंज पर (३) शतरंजिनी-रचयिता मकरंदश्रादि xx मध्य बुधिबत कौतुक देखि के, कियो बहुत सनमान । राजकाज लज लाजको दिय अर्धासन पान ॥ ५७५ ।। उतपति कही सतरंज की, बुद्धिबल जाको नाम । कू (कू!) तलज लाख विचारि सो, करि मकरंद प्रमान || ७७६ ॥ मनसूबा याके रच्यो पोथी जुदी बनाइ । देखें सुनें खिलार जौ, लिखे लेई चितुलाइ ॥ ५७७ ।। सोरठाचाल कही बनाइ, बुधिबल मुहरिनि की सबै । बुधिबल बड़ी लड़ाइ जो न माइ संदेह मन ॥ ५७८ ।। बुधिबल मुहरा चलन को, जानत जगत मुभाइ । मैं न जुटे कार के धरै, बहुरि ग्रन्थ बदि, जाइ || ५७६ ॥ मनसूबा पोथी निरखि, कयौ दरा बहु भार । अब कबीर सतरंज को, कीजो कछु विचार ॥ ५८० ।। कठिन खेल शतरंज को, जिहि कपीर है नाम । नाम रूप जाके बनें, मुहरा अति अमिराम ॥ ५८१ ॥ या कबीर शतरंज को, करहु बंधेत विचारि । में बहुते निसी बहु कयौ, कडू न दयो सुधारि ॥ ५८२ ॥ तातै उतपति भेद सौ. प्रगट कहाँ समुझाइ । भूले विस है चालि के, पोथी लेइ पटाई ॥ ५८३ ॥ बुधिबल किया लज लाज पहुंदिसि मयो प्रसिद्ध सो । अफलातून समाज पहुचे खेल खिलारते ॥ ५८४ ॥ थफलातू चित चिंत किय खेल किया पहु मैन । धनि लज लाज सुदेस धनि, बुधिबल धनि मनि वैन || ५८५ ॥
SR No.010790
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherRajasthan Vishva Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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