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(७) समुद्र बद्ध कवित्त । रचयिता-ज्ञानसार । आदि
सारद श्रीधर समर के, इष्ट देव गुरु राय । वर्णन श्री परताय की, करिहुं शक्ति बनाय ॥ १ ॥
अन्त
স্বামীश्री संकाणी दौर, कमल में छिप गई । रवि शशि दोनु भाजके, नभ मंडल मही ।। सिंघ सके बनवासे, जीय देही वनौ ।
श्री परतापसिंह जी, यो सो युग चिर चिर जयौ ॥ ५ ॥ इति चतुर्दश रत्न गर्भित समुद्र बद्ध चित्रम् । कृतिरियं ज्ञानसारस्य श्रीमज्जय. पुरे बरे पुरे ॥ श्री ॥
विशेष-इस पर राजस्थानी में बनाई हुई स्वोपन वचनिका भी है। जयपुर नरेश प्रतापसिंह का मुख वर्णन है।
[स्थान-प्रतिलिपि-अभय जैन प्रथालय ] नगरादि वर्णन गजलै( १ ) जैसलमेर गजल । कल्याण सं० १८२२ चे सु० आदि
अथ गजल गढ श्री जेसलमेर से लिख्यते
सरसत माता समरि ने, गाइने गणपत्ति ।
पाने जे सभी अवस, अवरल वाया उकति ॥ १ ॥ जडे सालम हीहुंवांणी सदा, पालम सिर जेसाण । नवहि खंडे मालम अनड, बालमगढ जेसाण ||
अथ गजल जालम गढ जेसाक, है जिहां सदा हिंदुवाशाक । पल। ध सोम पहाइ, उपर दुरंग हे श्रोना ॥ १ ॥