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(२०१)
"कवित्त मनहरन गनेसजू का" नंदन श्री सिवजूके सिवाके सुखद पति । प्यारे प्रान हूँ ते मारे मोन है गुनन के ॥ श्रेक दंत राजै भाल सिंदुर बिराजै चारु । चंद छवि छाजै काज साजै सुम मन के ॥ धाधु बरु श्रास नहैं नासन बिगन भूर । सासन जगत मान पूरन हैं पन के || बंदों गननायक सकल सषदायक । (क) हैं सुकवि गुलाब को सहायक सुजान के ॥
दोहासंवत जुग जुन गजससी, पौष पुन्यो बुधवार । एमदिन सौधि गुलाब कवि, कियो ग्रन्थ मुखसार ।।
गुन कम अपने बंसकौ, कैसे कहीं प्रमान । नाम रहत है ग्रन्थ मैं, याते करौं वर्षान ॥ १ ॥ दिल्लीपत अकबर बली, राप्यौ जिनको मान ।
से कुलदीपक भये, कुलमैं बकमनखांन ॥ २ ॥ यकसनपा के सुत मश्रे, लाडूपांन सुजान । सुत सुजान जू के मश्रे, लायक भाईखांन ॥ ३ ॥ लाडपांन के सुत प्रकट; चार चार गुन मोंन । चांदपान जुनेदां, रादू बाजिदषांन ॥ ४ ॥ बांदान के सुत उभ, जांनी कुदनषांन । जिनके गुन अरु लायकी, जानत सकल जहाँन ॥ ५ ॥ कुंदनपा के तीन सुत, जेठे कालेषांन । तिनको राजा र कसौं, रही अकेसी बान ॥ ६ ॥ लघु बंधी तिनके मुमति, मगनपांन गुनगेह । बंस मागीरथ मर्थ सौ, सदा रप्यो है नेह ॥ ७ ॥