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________________ ( २००) वि० प्रथम खंड-काराचा संयोग वियोग धर्णन पद्य २३ द्वितीय , के मग्न उपाय , पब ७० तृतीय , अष्ट नाइका , पथ २८ अपूर्ण (४) रसविनोद-रचयिाव-प्रवीनदास सं० १८५३ पादि अंश अप्राप्य मिलन मनोरय-विकल, सो कहिय उनमाद । इसी अवस्था सरन है, तामैं कछु नफसाद ॥ ७६ ॥ यह संबर शृगार को करनि रुनायौ रूप । थोरे में सब समझिये, बुद्धिवंत तुम थूप ॥ ग्रह इने हात जानी, संवत्सर श्रेपन अधिक । विक्रम ते पहचानि, जेट असित भृगु द्वादसी ॥ इति श्री महाराजाधिराज महाराज राजराजेन्द्र सवाई मानसिंघ हितार्थ प्रविनदासेन विरचितं रसविनोद संपूर्णम् । लिपीकृतं गढ गोपाचल मध्ये श्री ........... प्रति-गुटकाकार छोटी साईज, पत्र २० मे २४ पं०६ अ० १० [अभय जैन ग्रन्थालय] (५) सुखसार-रचयिता कवि गुलाब (सं०१८२२ पौष. शु० १५अवंतिका) आदिश्री गनेसायनमः अथ अन्ध सुषसार लिप्यते ॥ दोहा मंगलाचरन ॥ गुरुगन पति विध सारदा, श्री हरि मंगल हेत । कवि गुलाब बंदत परन, सिप सिका समेत ॥
SR No.010790
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherRajasthan Vishva Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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