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छप्प गणपति गुण निधिमार भार सिर काट ही मजें । गणपति समरित रिद्ध सिद्ध, मुख संपति पुज्जे । गणपति स्स्थत दुषम विषम, बल बुद्धि उपज्जे ।
गणपति चिंतित हित चित्त, वंचित फल हुज्जें ॥ गवरिनंद जयवंत सुकृत, मव काम दहन 'सत शुमकरण । एक दंतवंत गजवदन सकल गुण, दाश पित्त गणपति सरणा ॥२॥
दोहग
दक्षणदेश सुदेश हें और सब देशन को सार । अनधन मणि माणिक हीरा, मुगता को नही पार || ३॥ - तिहां पातसाहि करें, महाबली मति धीर । चारु दिशा जिन वश करी, सु साहिब श्रालमगीर ॥ ४ ॥ तिहानगर बुरानपुर वसतहि, अरु अरु खांण देश को धान दास वरण सबको बसें, पुन्य पवित्र मुग्यान ॥ ५ ॥
__ मोरठा
तिहां तापी तोय तोर, दास सुमरितही सके । पायन रहे सरीर, वेद पुगण यु उचरें ।
दोहरा दाम दमोदर नाम हें मूढ मती अग्यान । गुरु प्रसाद उपदेशते, दीयो चिक स्यान ॥ ७ ॥ जिन गुरु अक्षर ही दीयो । स पंडित परमानंद । अंचल गश्रमों सोभिजें, जो पुनिम को चंद ॥ ८ ॥ दास दमोदर चतुरकों, कीयो ग्रन्थ सो मात । पटुवा परम प्रसीद्ध ही वीर वंस हे जाति ॥ ३ ॥ तिन इह ग्रन्थ विस्तारियों, सुभग सरल सुरंग ।। भूल्यो चूको कवीजनो, जिन प्राणो चित भंग ॥१०॥ संवत १७ सय वरष छप्पन्नवा समसार । श्रावण सुदि तिधि पंचमी, बार मलो गुरु वार ।