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(२) मधुकर कलानिधि
मादि
सवैयाबानी जू हौ जगरानी महीपद पंकज रावरे जे नर प्यावें । से नर ऊषम हुष पियूष सनी मृदुका ला बरसा ॥ मान मरे गुन ग्यान मरे पुहमी मध दानन को ते रिझाने । कीरति चंद्रिका चंद्र समान समा नैम ते ईक विद्र कहावै ॥
कवित्तश्ररथ अमोल मनि सुबर अलंकार अन्धनि को राजही के गुननि गयौं करें । मानि हान मानि दान दुन निस दाम वियरुघ मक्कि लछि लखि सदा उलयो क । सरस सिंगार कलकहड मकान बनि राजै छबि छाजै छत्र और निलयौ कर । साधु बंध कृपासिंधु सत्य सिधु माधवजू रावरे को सुरसुति से दवे बौं करें ।
गुन रतनाकर नृप मुकुट, विलसत मधुकर भूप ।
निज मति उज्जवल करन में, कियो ग्रन्थ रसरूप ॥ अंत
ये कीने हैं रस कवित, अपनी बुधि अनुसार ।
सौधि लीजियो छमा करि माधवेस अवतार ॥ इति सारस्वतसारे मधुकर कलानिधि संपूर्ण । सं० १८५७ श्रा० १०७-सोमवार पत्र १३ पं० १७ अ-१० पुस्तकाकार साइज ||x१०॥
[स्थान-अनूप संस्कृत पुस्तकालय ] वि० इसी प्रतिके प्रारंभ में प्रेमप्रकाश व्रजनिधि रचित है। ( ३ ) रसमोह श्रृगार-कर्ता-दामोदर सं० १७५६ बुरहानपुर
आदि
अथ रसमोह श्रृंगार लिख्यते
पहेलें गनपति नमनकरि । नमु प्रपति तास । चौहरि सरस्वति नमनकरि, मागु बुद्धि प्रकास ॥ १ ॥