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________________ (१६०) (३) छंद अंगार । पद्य २२८ । सेवग महासिंघ । सं. १८५३ नम. सु. ५ नष्टे नगर। धादि छप्पय- . धरन बरन गज वदन सदन, बुद्धि वर मुख दायक । अष्ट सिद्धि नव निद्धि वृद्ध, नित प्रति गण नायक || विमल ग्यान बरदान तिमर, अक्षान निकन्दन । सर्व कार्य सिद्धि लहे, प्रष्णु नासो जग बन्दन ।। गरि सुनंद पानन्द मय, विधन व्यापि भव भय हरन । निज नाय सीस कवि सिंघ, मजय गनेश मंगल करन ॥१॥ गणपति देव प्रताप , मति अति निर्मल होत ।। ज्यू तम मन्दिर के विषे, दीपक करत उद्योत ॥२॥ श्री गुरुदेव प्रतापते, मयो सुम्यान अमन्द ।। जाके पद सिर नायक हूं, भाषा पिंगल छंद ||३|| छंद बोध यात लह, रसिकन को रस सार । नाम धग्यो इन ग्रन्थ को, ताते छंद अंगार ||४|| छंद पधडीअब कहूँ प्रथम प्रष्ट हिं प्रकार । दुतीय प्रभाव गन के विचार ।। मन तृतीय छंद मता सुचाल । मन वर्ण छंद चोथे रसाल ॥५॥ अन्त नाम छद सिगार है, पढ़त हिं प्रगट प्रमोद । मंद मेद अरु नायका, जाको लहत प्रबोध ॥ २६ ॥ चोपई छंद भारद्वाज गोत्र पोहकरना, सेवग ग्यात कहाने । महासंघ नगर मेरते, बसे परम सुष पावे ।। जो कविता जन भये अगाउ, जांके वंदत पाया । बंद भंगार ग्रंथ यह कीनों, सामधि हरि गुन गाया ॥ २७ ॥
SR No.010790
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherRajasthan Vishva Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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