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जो चंद्रमा की कला ताकी चंचत् देदीप्यमान जु शिखा ताकरि मासुर देवीप्यमान है। पुनः कैसे हैं श्री महादेव । लीला अपुनी करि जारपौ है काम रूप पतंगु जिनि ।। पुनः कैसी है ।। मोक्ष दसा के प्रागै प्रकासमान है।। पुनः कैसे हैं श्रीमहा. देव । अंतःकरण विष बाढ्यो जु मोह अज्ञान रूप अंधकार ताको नाश करणहार । असो श्री महादेव जयवंत वत्तै ।। १ ॥ राजा भरी हर । या संसार को दसा । जैसी आपुनकू भई । तैसी साधुन को जनाइ करि । वैराग्य उपराजिव कई : पंथ करत हैं ।। तहां जो असाधु निंदा करें नौ करौ । निंदा असाधु ही को कर्तव्य है ।। असाधु सु कछु तातपरज नाहीं। असाधु को निर्णय करत है। भागिलेश्तो कन्ह विष ।। xxx अंत
अहो महां तनके वचन चित विर्षे अवस्यमेव राखिजै । यह आयु जु है सु कल्लोल मई। लोल चंचल है। जैस जल को तरंग। अरु जोबनु की जु श्री सोभा तें घोरे ही दिवस है। परंतु बिनसि जातु है । अरु अर्थ जु है अनेक प्रकार की लक्ष्मी ते स्मर तुहीं नात हैं । अरु भोग को समूह सु जैसें मय वितानमौ विजुरी चंचल तैसो क्षण एक चंचल है। उपजै अरु नष्ट जाइ। अरु प्रिया जुस्त्री तिन्ह जुआलिंगनु विलास सो चितषत ही आत है। तातें हौं कहत हौं यह समस्त अनित्य जाणिकरि परब्रह्म जिहैं श्री नारायण तिन्ह विष अंतहकरण निरंतर हलगावह। अब संसार को त्रास निवारी करि वैकुठ विर्षे चलो ॥ ८ ॥
(अपूर्ण लिखा हुआ) प्रति-पुस्तकाकार गुटका। पत्र ८५ पंक्ति १७ अक्षर २० प्रत्येक मूलश्लोक के नीचे टी का लिखि है। मूल श्लोक यहां नहीं दिये हैं।
[वृहत ज्ञानभंडार-बीकानेर ] (१) श्रमर सार नाम माला- रचयिता-फष्णदास-दो ३६० श्रादि
प्रादि पुरुप जगदीश हरि, जागुन नाम भनेका। समय रूप रचि जान ही, श्रादि अंत जो एक॥१