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दोहासाहि महंमद फुरमति, ताक्रित बारहमास । विरही तन मन रंजना, भोगी चित हुलास ॥१॥
सोरठाअहट हुत्तो तबसुन, मीम परत मूरत मई । देखें गहु घटका पुन, प्रभु प्रगटे नर रूप होई ॥२॥
कवित्त
सुगन सकल बहु हुने नेन कुच भुजा फरकहिं । फरकति अंचल दरस दरम पिय कमन तरकही । अवन रसन चख प्रान परस रख भुज मुखलीनी । अब नब जब विध रचत संइछत मोहि दीनौ । मानवी मदन महमुद मुदति मिले मनोहर विविध मति । नौरस विलम तस्नी मनुहर वन साहि चंपा जु पति ॥
दोहाबारहमास अ मैं कहै, ज्यों अमरन बिन हार ।
झुरते अधर चित धरहु, टूटत लैह संवार ॥ ३ ॥ इति श्री साहि महमद को बारहमासा संपूर्ण । शुभं भवतुः ॥ ले. संवत् १७५० वर्षे चैत्र सुदि अष्टम्या तिथु छेनीसुर वारे श्री बीकानेर मध्ये मथेन पेमू लिखत नन्पुत्र महपालः तत्पुत्र ।
[अभय जैन ग्रंथालय] (११) बारहमासा--श्री मीना सतमी श्रासाधन की । आदि
परथम बेनमूं नया मंडारू । बखख एक सो सेरजन हारु । पास तोरी मो बहोत गोसाइ, डरे, काह कर रगे नाही ।