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इकतारी नेम से करती, धन सीपल रतन ने धरती । तिम विरह करी तनुतपती राजुल बालम मे अपती ॥२॥
पन्त
सखी मन धारो पारह मासा, प्राणों वैराग उलासा । गुरु विजय हरख जसबासा, वधते धर्मसील विलासा ॥ १६ ॥
[अभय जैन प्रन्थालय) (७) नेमि राजिमती बारहमासा पध १३ । रचयिता- केसवदास ।
सं १७३४ पाधि
धनघोर घटा उमरी विकटी, भृकटी हग देखत ही सुख पायो। बिग चमकत मुकंत सही, फुनि भू रमणी उर हार बनायो।। - मर भौर भिंगोर करै वन में, धन में रति चोर को तेज सवायो ।
सुख मास भयो भर जोवन भाषण, रामुल के मन नेम सुहायो ॥ १ ॥ अंत
गुम के सुपमाउ लही शुभ भाव, बनाय फयो इह बारह मासा | उग्रसेन सुता नमि जो गुण गावत, वंचित सीमत ही सब अासा || सुध मास सदावण को शनिवासर, सम्वत् सतर चौतीस उबासा !
श्री लावण्यरत्न सदा प्रसाद ही, केशवदास कहि सु-विलासा ॥ १३ ॥ इति श्री नेम राजुल के बारह मासा समाप्तं । ले०:- बीकानेर मध्ये।
[अभय जैन प्रन्थालय] (८) नेमि बारह मास । पद्य १३ । रचयिता-लब्धिवर्द्धन । आदि
पकटा विकटा निकटा निरजें गरजे धनघोर घटा घन की । सजूरी पजूरी वीजरी चमके, अंधियार निसा अती सावन की । पीठ पीउ कहै पपीहा उपहा, कोह पीर लहें पर के मन की । ऐसो नेम पीया ही मीलाय दियै, बलिजाउं मसी जगि या अनकी ।