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एम द्वादश मास सहि गृहबास, गई प्रिपू पास विराग हं पाणी । विषया रस घोरी दोहु करि जोरि, सिव सुख काज सुणी जिन पाणी । लहि संजम मार सजी कुविचार, सती सिमगार राजिमती राणी ।
लवधि पद्धन धन धन्न नेमीसर, सामी नमो निते लवि प्राणी ॥ १३ ॥ इति द्वादश मास नेमी राजिमती समाप्त ।
[अभय जैन ग्रंथालय ] (8) नेमिवारहमासा । पद्य-१६ । श्रादि
सुराजे री वात सहेली जदुराय पिन खरीय दुहेली । मेरो पोउ है कामनगारो, चित ले गयो चोर हमारो ॥१॥ दीया दोष पसुन को भूठा, वालम तो मोसं रूठा ।
रूठो पीउ मनावे कोई, सखी मित्र हमारो सोई ।। सु० ॥ २ ॥ अन्त
जदुपति उग्रसेन की कुंश्ररी, परणी व्रत चारित्र धरणी । नव भव की प्रीत विसारी, जाय मुक्ति पुरी में सारी ॥ सु० ॥ १६ ॥
[अभय जैन ग्रंथालय ] (१०) नेमि राजिमती बारह मासा । पय २६ । विनोदीलाल । आदि
विनवै उग्रसेन की लाड लडो, कर जोरी के नेम के पागे खरी । तुम काहे पिया गिरनार चले, हम सेती कहो कहा चूक परी ॥ यह र नहीं पीय संयम की, तुम काहै की ऐसी चित्त धरी । कैसे बारह मास बितायेंगे, समझायो पिया हम ही सगरी ॥
अन्त
बारह मास पूरे भए, तबै नेमिहि राइल जाय इनाए । नेम ह द्वादश माव नस धनु प्रछते राल कू समुझाए । राजल ही तप संयम लें तप के सुभ मावा. कर्म गराए । नेम जिनन्द अरु राजमति प्रति • उत्तर लाग विनोदी ने गाए ॥ २६ ॥