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चरण करण समति कंगुरा, अनंत विरजम साजी रे । २० ॥१॥ सात भूमि पर निरमय खेलें, निर्वेद परम पद लाई रे । १० । विविध तस्व विचार सूखदी, शान दरस सुरमि माई रे । २० ॥२॥ पहनिशि रवि शशि करत विकासा, सलिल अमीरस धाई रे । २० । विविध तूर धुनि सामल वालम, सादवाद अवगाई रे । २० ॥३॥ ध्येय ध्यान लय चढ़ी है खुमारी, उतरै कबहु न रामी रे । २० । मन निधि संयम घरनी वाचा, ज्ञानानन्द मुख धामीरे । २० ॥ ४ ॥
[प्रतिलिपि-अभय जैन प्रन्थालय] ( ५४ ) समय सार-बालबोध-रचयिता-रूपचन्द सं० १७६२ । धादिअथ श्री नाटक समयसार भाषाबद्वों लिख्यते ।
दोधकभीजिनवचन समुद्र की, को लग होइ बखान ।
रूपचन्द तौटू लिखें, अपनैं मति अनुमान । अथ श्री पार्श्वनाथजी की स्तुति, झंझटा की चालि
सवैया ३१'मूल सवैया की टीका-अब ग्रन्थ के श्रादि मंगलाचरन रूप श्री पार्श्वनाथस्वामीजी की स्तुति आगरा की वासी श्रीमाली वंशी विहोलिया गोत्री बनारसीदास करतु है भी पार्श्वनाथस्वामी के हैं करमन भरम-करम सो बाठों ही करम, मरम सो मिथ्यात सोई जगत में तिमिर कहता अधकार नाके हरन को खग कहते सूर्य है । अरु जाके पगमें उरग लखन कहते सर्प को लगन है श्रम मोत-मार्ग के दिखावन हार है, बरु जाको नयन करि निरखते भविक कहता कस्यानरूपी मज है सो वरषै, ताते अमित कहता परिमान बिना अधिक जन सरसी कहता भन्यलोक सरोवर है सो हरषत है, जिन कहते बिहि कारन मदन बदन कहता कंदर्प के शमा कारक है, अरु जाको उत्कृष्ट सहज सुखरूपी मीत है, सो मगत कहत भाग जाइ है।"
अंत
पृथ्वीपति विक्रम के, राज मरजाद लीन्हें, सहसै वीतै परिवान श्राव रस मैं ।