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________________ अंत ( १५५ ) इनसे कोई अज्ञान मूढता दोष संती कोई न्यूनाधिक विरुद्ध लिख्या गया होइ, उसका श्री संघ साखिमिच्छामि दुकडे हो, अरु गुणी जन ने क्षमा कर के शुद्ध करंगाजी || " दृहा संवत् यठारह अधिक, बीते एगुतीस । मृगसिर यदि दशमी दिनें, पूरण भई जगीस ॥ १ ॥ तप पति महिमा निलौ, नागर बन्दित पा श्रीपून्य सागर सूरिवर, नम्रो सुयश सदाय ॥ २ ॥ तस श्राणा सिर धारता करता विषय कषाय । कृपावंत श्रागम रुचि, श्री ज्ञानसागर उवकाय ॥ ३ ॥ तारा सांस पूरव तथा भेटत तीर्थ धनेक | रह्या मसुदाबाद मैं, चऊमासा सुविवेक ॥ ४ ॥ सर्व भद्रक प्रकृति, साह रूपचन्द सुजान | रतनचंद तनुषा, धर्म रुचि सुभवांन ॥ ५ ॥ शास सुयत तप ची मई, वीसठाण गुणगेह । कहें विधि हम लिखदीश्रो, तब श्रम कीन्हों एह ॥ ६ ॥ विधिपूर्वक जो तप करे, मात्रै भावसार । तीर्थंकर हुई तेल है, शाश्वत सुख श्रीकार ॥ ७ ॥ मिति सं० १८७१ कार्तिक सुदी ३ अजीमगंज नगरेप्रति-पत्र ३४, पं० १२ से १७, ० ३३ से ४२, साइज - १०।।। x ५ [ मोतीचंद जो खजानषी संग्रह ] ( ५३ ) संयम तरंग | पद- ३७ आध्यात्मिक । रचयिता - ज्ञानानन्द । तिम पद राग झिंझोटी रहो बंगले में, बालम करूं तोहे राजी रे । र०॥ टेक ॥ निन परिणति का अनुपम बंगला, संयम कोट सुगाजी रे । २०
SR No.010790
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherRajasthan Vishva Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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